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भगवद् गीता अध्याय 13: प्रकृति पुरुष विभाग योग

भूमिका
भगवद् गीता का तेरहवां अध्याय 'प्रकृति पुरुष विभाग योग' के नाम से जाना जाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रकृति (माया) और पुरुष (आत्मा) के अलगाव के बारे में विस्तार से बताते हैं। अध्याय में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे प्रकृति की सीमाओं से परे जाकर आत्मा को मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

प्रकृति की प्रकृति
भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति को 'माया' के रूप में वर्णित करते हैं, जो एक भ्रम पैदा करती है और आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप से अलग कर देती है। वे कहते हैं कि प्रकृति तीन गुणों से बनी है: सत, रज और तम। ये गुण सभी जीवित प्राणियों की प्रकृति को आकार देते हैं और उनकी इच्छाओं, लगाव और भय को संचालित करते हैं।

पुरुष की प्रकृति
इसके विपरीत, पुरुष को आत्मा या चैतन्य स्वरूप के रूप में वर्णित किया गया है। वे कहते हैं कि पुरुष गुणों से परे है, अविनाशी है, और शरीर से रहित है। वे कभी नहीं बदलते हैं और सभी प्राणियों में समान रूप से मौजूद होते हैं।

प्रकृति और पुरुष का विभाजन
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि आत्मा प्रकृति में नहीं है, बल्कि उसका साक्षी मात्र है। यह विभाजन अनिवार्य है, क्योंकि यह आत्मा को उसकी दिव्य प्रकृति को साकार करने और प्रकृति के बंधनों से मुक्त होने की अनुमति देता है।

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ज्ञान और अज्ञान
इस अध्याय में ज्ञान और अज्ञान की भूमिका पर भी चर्चा की गई है। ज्ञान प्रकृति और पुरुष के बीच अंतर को समझने से प्राप्त होता है। यह अज्ञानता के अंधेरे को दूर करता है और आत्मा को उसके सच्चे स्वरूप का एहसास कराता है।

भगवद् गीता अध्याय 13: प्रकृति पुरुष विभाग योग

आत्म-साक्षात्कार का मार्ग
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं को आत्म-साक्षात्कार का मार्ग बताते हैं। वे कहते हैं कि जो लोग उनका भक्तिपूर्वक चिंतन करते हैं, वे प्रकृति के बंधनों से पार हो जाते हैं और आत्मा की शांति और मुक्ति प्राप्त करते हैं।

कर्म योग
इस अध्याय में कर्म योग के महत्व पर भी प्रकाश डाला गया है। भगवान श्रीकृष्ण कर्मों को बिना लगाव के करने की सलाह देते हैं, केवल कर्तव्य की भावना से। इस तरह, लोग प्रकृति के बंधनों से बच सकते हैं और अपनी आध्यात्मिक प्रगति को आगे बढ़ा सकते हैं।

ध्यान योग
ध्यान योग को भी प्रकृति और पुरुष के विभाजन को समझने के एक साधन के रूप में उल्लेख किया गया है। ध्यान के माध्यम से, व्यक्ति अपने आंतरिक स्वरूप को देख सकता है और पुरुष की शुद्ध चेतना का अनुभव कर सकता है।

ज्ञान योग
ज्ञान योग को मोक्ष का सबसे ऊंचा मार्ग माना जाता है। इसमें शास्त्रों का अध्ययन, आत्म-अवलोकन और ब्रह्म में मन की एकाग्रता शामिल है। ज्ञान योग के माध्यम से, व्यक्ति प्रकृति और पुरुष के बीच के भेद को पार कर जाता है और ब्रह्म की एकता का अनुभव करता है।

भक्तियोग
भक्तियोग को उन लोगों के लिए एक आसान मार्ग माना जाता है जो ज्ञान योग का अभ्यास करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। भक्तियोग में भगवान को प्रेम और भक्ति करना शामिल है। इसकी शक्ति ऐसी है कि यह प्रकृति के बंधनों को तोड़ सकती है और आत्मा को मुक्त कर सकती है।

निष्कर्ष
भगवद् गीता अध्याय 13 प्रकृति और पुरुष के विभाजन के बारे में एक गहरा और परिवर्तनकारी अध्याय है। यह आत्म-साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करता है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए विभिन्न योगों पर प्रकाश डालता है। चाहे आप किसी भी मार्ग का चुनाव करें, इस अध्याय की शिक्षाएं आपको प्रकृति के भ्रम से परे जाकर अपनी आध्यात्मिक क्षमता को उजागर करने में मदद करेंगी।

भगवद् गीता अध्याय 13: प्रकृति पुरुष विभाग योग (संस्कृत)

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

अध्याय 13: प्रकृति पुरुष विभाग योगः

इदं शरीरं कौन्तेय प्रकृतिस्थं निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय स्थितिं तां शृणु मेऽच्युतम्।

मायां तु प्रकृतिं विद्यान् मायिनं तु महेश्वरम्।
तस्यैव हेतुः प्रकृतिः सृष्टिस्थित्यविनश्वरे।

भूमिका

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तिष्ठन्ति भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यक्षर उच्यते।
भूतानां सर्वेष्वनुस्सूतः स चराचरमोऽव्ययः।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव नभुनिर्वृत्तिमत ऊर्ध्वं नैह स्म कृष्ण से।

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मां भजति तत्परः।
भवति मद्भक्तोत्तमः ततश्च मामेति सोऽर्जुन।

वैद्यानां वेदविदां च सर्वेषां च गुरूर्गुरुः।
सर्वान् लोकान् समतीतवान् स लोकान् विदितास्ततः।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं गदतः श्रुणु।

क्षेत्रं क्रियावत्परज्ञाता कर्ता क्षेत्रज्ञ उच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञातृ त्रीणि सर्वात्मकं जगत्।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समादधि।

दैवं चैवात्र पञ्चकं प्रदीक्षामि तदूर्ध्व वै।
प्रकृतिः पुरुषः कार्यं विकारस्तथा कारणम्।

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तिष्ठन्ति भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्राप्य मुनयः तुरीयं तदुर्ध्वं गच्छतत्यतः।

आ ब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वन्नाविद्यते क्वचित्।
निर्गुणं गुणभावानां गुणेभ्यश्च परं मम।

ब्राह्मी स्थितिं प्राप्तुं च मम साधर्म्यमागतिः।
नियताः सर्वभूतेषु तद्दर्शनाद् भवन्त्युता।

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।

आ ब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।

Time:2024-08-16 08:06:31 UTC

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